जीवन परिचय

पद्मभूषण लौटने वाले सेठ गोविंद दास, 1947 से 1974 तक रहे जबलपुर लोकसभा सीट से सांसद

18 जून : सेठ गोविंददास ही ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया था। जबलपुर के सांसद रहे साहित्यकार सेठ गोविंददास देश और हिन्दी के सुरताल में अंग्रेजी भाषा के मिश्रण के धुर विरोधी थे। क्षेत्रीय भाषाओं को अलग-अलग राज्यों की शासकीय भाषा का अधिकार देने के प्रस्ताव पर हुई चर्चा के दौरान संसद में दिया गया सेठ गोविंददास का भाषण हिन्दी के विकास में मील का पत्थर माना जाता है। : सेठ गोविंददास की आज 49 वीं पूण्यतिथि है.

सेठ गोविंद दास का जन्म 16 अक्टूबर सन् 1896 को विजयदशमी के दिन मध्यप्रदेश के जबलपुर नगर में एक सुप्रसिद्ध संभ्रांत सेठ परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम राजा गोकुलदास था। आप की शिक्षा दीक्षा भी घर पर ही उच्च कोटि की हुई। आपका परिवार धार्मिक प्रवृत्ति का था। मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही सेठ गोविंद दास जी ने कि तिलस्मी उपन्यास “चंपावती” की रचना की। उस समय सेठ बाबू देवकीनंदन खत्री रचित “चंद्रकांता” से आप बहुत प्रभावित थे।

सेठ गोविंद दास ने सन 1919 में महात्मा गांधी जी के प्रभाव में आने के बाद भारतीय राजनीति में भाग लेना आरंभ किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेकों बार आपने जेल की यात्राएं, जुर्माना भुगता तथा सरकार से बगावत के कारण पैतृक संपत्ति का भी उत्तराधिकार खोना पड़ा। सेठ गोविंद दास का राजनीतिक सफर भी बहुत व्यापक रहा। आप सन 1947 से लेकर 1974 तक जबलपुर के “सांसद” रहे। आप गांधी जी के बहुत ही करीबी सहयोगी थे।

संसद में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण-

संसद में उन्होंने कहा-‘ जिस भाषा ने स्वाधीनता संग्राम में पूरे देश को एकसूत्र में पिरो दिया, उसे कमजोर नहीं माना जा सकता। हिन्दी की वर्णमाला की आधी भी नहीं है अंग्रेजी की वर्णमाला। हिन्दी का उद्गम संस्कृत से हुआ है, भारत में प्रचलित सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। एक मां से उत्पन्न बच्चों में अधिक सामंजस्य होगा या अलग-अलग माताओं की संतानों में? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के एक तिहाई से अधिक लोगों की भाषा को अपने ही देश में राजभाषा का दर्जा पाने के लिए याचना करना पड़ रहा है।”

संसद में संविधान संशोधन के खिलाफ मत देने वाले इकलौते सांसद थे
1962 में कांग्रेस ने संसद में विधेयक पेश किया था। इसमें अंग्रेजी को राजकीय भाषा बनाने और राज्यों को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को भी दूसरी राजकीय भाषा बनाने का अधिकार दिया जाना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से सहमति न बन पाने के बावजूद सेठ गोविंददास ने इसे अपना जनतांत्रिक अधिकार बताते हुए मत प्रकट करने की अनुमति मांगी। नेहरू को सेठ गोविंददास की जिद के आगे झुक कर उन्हें विरोध दर्ज कराने की अनुमति देनी पड़ी थी। संसद में संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रस्तावित इस संशोधन के खिलाफ मत देने वाले वे इकलौते सांसद थे।

संविधान के प्रारूप में करा लिया था हिन्दी को शामिल
हिन्दी के प्रति समर्पित सेठ गोविंदास ने 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक में अपनी बात मुखरता से रखी थी। 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा की चौथी बैठक में सेठ गोविंददास और पीडी टंडन खुलकर हिन्दी के पक्ष में आ गए। सेठ गोविंददास ने दिल्ली में 6-7 अगस्त 1949 को एक राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया। इसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का प्रस्ताव पास हुआ। प्रयास किए गए कि राजभाषा के सवाल पर आम सहमति बन जाए पर लिपि के सवाल पर पेंच फंस गया। कुछ लोग अरबी लिपि को और कुछ लोग रोमन लिपि को अपनाने का सुझाव दे रहे थे।

पक्ष में बन गई आम सहमति-

बहुमत हिन्दी के पक्ष में था फिर भी कुछ सदस्य राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दुस्तानी (अंग्रेजी) के पक्षधर थे। 12 सितंबर 1949 को भाषा के प्रश्न पर विचार करने के लिए संविधान सभा की बैठक में हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाए जाने के पक्ष में आम सहमति बन गई, हालांकि अंकों की लिपि और अंग्रेजी को जारी रहने के लिए कितना समय दिया जाए इस पर सहमति नहीं बन पाई।

1990 में पहली बार हाईकोर्ट ने दिए हिन्दी में फैसला-

जबलपुर राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर हमेशा से अग्रणी भूमिका निभाता रहा है। 1990 हाईकोर्ट ने हिन्दी में दायर याचिकाओं पर हिन्दी में ही निर्णय भी दिए। पूर्व चीफ जस्टिस शिवदयाल, जस्टिस आरसी मिश्रा व जस्टिस गुलाब गुप्ता ने सिंगल बेंच में बैठते हुए हिन्दी में कई फैसले दिए। 2008 के बाद से हाईकोर्ट की तीनों खंडपीठों में अब वकीलों को हिन्दी में बहस करने की छूट है। बम्बादेवी मंदिर के पास रहने वाले बुजुर्ग वकील शीतला प्रसाद त्रिपाठी ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में हिन्दी में कामकाज की मांग को राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप दिया।

हिन्दी को हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जनहित याचिका दायर की गई-

1990 में सबकी सहमति से हिन्दी को हाईकोर्ट की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जनहित याचिका दायर की गई। संविधान में दिए गए प्रावधानों का हवाला दिया गया। अंतत: कोर्ट ने याचिका का निराकरण करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल को इस संबंध में अभ्यावेदन देने को कहा। अंतत: 2008 में हाईकोर्ट ने भी नियमों में संशोधन किया। संशोधित मप्र हाईकोर्ट रूल्स एंड ऑर्डर 2008 में हिन्दी भाषा को अंगीकार कर लिया गया। हिन्दी में याचिका दायर करने, बहस करने की अनुमति मिली।

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