जीवन परिचय

मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर लोग आते गए और कारवां बनता गया : मजरूह सुल्तानपुरी

24 मई. मजरूह सुल्तानपुरी किसी भी पहचान के मोहताज़ नहीं है, वह हिन्दी सिनेमा के जाने-माने गीतकार हैं। बात इतनी ही गर्व करने वाली है कि किसी ने 50 से ज्यादा फ़िल्मों में गाने लिखे हैं लेकिन मजरूह ने 50 सालों से ज्यादा फ़िल्मों को दिए और उनमें बोल लिखे।

मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था। उनका जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था। उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे। मजरूह सुल्तानपुरी ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया। इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब्ब कॉलेज से यूनानी पद्धति में डॉक्टरी की डिग्री हासिल की। फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेअरो-शायरी में थी। जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते। उन्होंने अपना तख़ल्लुस यानी उपनाम मजरूह रख लिया। शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली और वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए।

उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया। एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई। उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी की हौसला अफ़ज़ाई की। साल 1945 में वे एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता एआर कारदार से हुई।

कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे। उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे। जब मजरूह सुल्तानपुरी ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी। मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया

मजरूह सुल्तानपुरी ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया। वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे। वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे। उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी। तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था। सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने माफ़ी मांगने से साफ़ इंकार कर दिया। नतीजतन, उन्हें दो साल की सज़ा हुई और इस तरह उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का काफ़ी अरसा मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताना पड़ा। गुज़रते वक़्त के साथ-साथ उनके चाहने वालों की तादाद में इज़ाफ़ा होता चला गया। उनका कहना था-

मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

साल 1994 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे। साल 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत- चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें साल 1980 में ग़ालिब अवार्ड और साल 1992 में इक़बाल अवार्ड से समानित किया गया था।

मजरूह सुल्तानपुरी ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर कर दिया।

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