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क्या केंद्रीय अधिनियमों का हिंदी नामकरण असंवैधानिक है?

हाल ही में केंद्रीय उड्डयन मंत्री  किंजिपु राममोहन रेड्डी द्वारा विमानन क्षेत्र में व्यापार को आसान बनाने एवं विदेशी  निवेश आकर्षित करने जैसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति हेतु 90 साल पुराने एयरक्राफ्ट बिल को बदलने के लिए संसद में भारतीय वायुयान विधेयक 2024 पेश किया गया। विधेयक पर चर्चा में भाग लेते हुए, इसके नामकरण पर विभिन्न विपक्षी सांसदों द्वारा प्रश्न उठाया गया एवं इसे बदलने की मांग की गई। यह कोई नई बात नहीं जब संसद में  हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के मुद्दे पर राजनितिक गहमा गहमी एवं आरोप प्रत्यारोप चला हो। हिंदी को लेकर संसद में विरोध का इतिहास बहुत पुराना है। आजादी के पहले शुरु हुई यह परंपरा आज भी जारी है। परंतु आंध्रप्रदेश से वाईएसआरसीपी के सांसद निरंजन रेड्डी ने इस विधेयक पर चर्चा करते हुए इसके नाम को असंवैधानिक करार दिया। उन्होने कहा कि विधेयकों का हिंदी नाम संवैधानिक अनुच्छेद 348 (1 बी ) के तहत असंवैधानिक है। जिस तरह से वर्तमान सरकार पर संविधान को लेकर लगातार हमले किए जा रहे हैं, ऐसे परिप्रेक्ष्य में यह जानना प्रासंगिक हो जाता है कि क्या वाकई केंद्रीय अधिनियमों का हिंदी नामकरण असंवैधानिक है। आइए इस संबंध में  संविधान में उल्लिखित भाषाई प्रावधानों पर एक अंतर्दृष्टि डालते हैं।
संविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा संबंधी प्रावधान उल्लिखित हैं । अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी एवं लिपि देवनागरी निर्दिष्ट है। अनुच्छेद 348 उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय, संसद एवं राज्य के विधानमंडलों के कार्यों की भाषा से संबंधित है। हलांकि 348 (1-ब ) में प्रावधान है कि संसद द्वारा पारित विधेयकों की भाषा अंग्रेजी होगी, परंतु अनुच्छेद 344 के तहत 1955 में  गठित राजभाषा आयोग  के प्रतिवेदनों पर संसद एवं राज्यों की प्रतिक्रिया प्राप्त कर 1960 में पारित राष्ट्रपति आदेश एवं तदनुरुप राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 5 में स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्रीय अधिनियमों के अंग्रेजी एवं हिंदी दोनों संस्करण उनके प्राधिकृत पाठ होंगे।
राजभाषा अधिनियम 1963  की धारा 3 में संघ के राजकीय प्रयोजनों एवं संसद में प्रयोग हेतु हिंदी एवं  अंग्रेजी दोनों भाषाओं के समान रुप से प्रयोग का प्रावधान है। अधिनियम की धारा 3(3) में ऐसे 14 प्रकार के दस्तावेजों का उल्लेख है, जिसे अनिवार्यतः द्विभाषी जारी करना है। इस सूची में संसद के समक्ष रखे जाने वाले राजकीय कागज पत्र भी शामिल हैं। इन प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि केंद्रीय अधिनियमों का हिंदी नामकरण संवैधानिक दृष्टि से बिल्कुल वैध है।
संविधान की मूल भावना है कि उपयुक्त समय आने पर अंततः हिंदी को ही भारत की पूर्ण राजभाषा होना है, जो अभी संयुक्त रुप से हिंदी एवं अंग्रेजी है। साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं को संवैधानिक प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से आठवीं अनुसूची में हिंदी सहित 22 भाषाएं रखी गई हैं, जिनमें अंग्रेजी का नाम नहीं है। इन प्रावधानों से यह तो स्पष्ट है कि संविधान की दृष्टि में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं सहचर हैं, प्रतिद्वंदी नहीं। संविधान एवं सरकार की तमाम जद्दोजहद भी अंग्रेजी भाषा पर भारतीय भाषाओं का प्राबल्य स्थापित करने का है ना कि भारतीय भाषाओं एवं हिंदी को एक दूसरे के समक्ष खड़ा करने का। ऐसी स्थिति में, अधिनियमों के हिंदी नामकरण से राष्ट्र के किसी भी हिस्से के जनमानस की भाषाई संवेदना आहत हो, ऐसा बिल्कुल प्रतीत नहीं होता।
वर्तमान में देखा जाए तो, सरकार द्वारा उठाए जा रहे इस कदम को राष्ट्रव्यापी समर्थन प्राप्त हो रहा है। आईपीसी, सीआरपीसी को बदलकर  भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम करने की प्रक्रिया को जिस तरह से अखिल भारतीय स्तर पर आम जनता, न्यायिक प्रक्रिया एवं पुलिस प्रशासन से जुड़े लोगों द्वारा हाथों हाथ लिया गया, उससे यह स्पष्ट है कि अब समग्र राष्ट्र एकजुट हो गुलामी के प्रतीकों एवं अंग्रेजी की पराधीनता से मुक्ति को आकुल है।
इस विचार को राजभाषा अधिनियम की धारा 3 (5 ) और भी पुष्ट करती है, जिसमें यह उल्लिखित है कि जिस दिन संसद के दोनों सदन एवं संघ के सभी राज्योंं के विधान मंडल इस बात पर सहमत हो ऐसा प्रस्ताव पारित कर दें,  उस दिन से संघ के राजकीय प्रयोग हेतु अंग्रेजी का प्रयोग निर्बंधित हो  जाएगा।
भाषाई एकरुपता की दृष्टि से देखें तो अनेक ऐसे शब्द हैं जो विभिन्न भारतीय भाषाओं में एक समान या मिलते जुलते हैं। जैसे-विमान शब्द को ही ले लें – यह शब्द तमिल, तेलुगु , बंगाली, ओड़िया सहित भारत की अनेक भाषाओं में एक समान है। अर्थात भारतीय भाषाएं निकटतर हैं, अंग्रेजी सूदूर।  ऐसी स्थिति में, केंद्रीय अधिनियमों के भारतीय नामों से कम से कम किसी भारतीय को तो ऐतराज नहीं होना चाहिए। वैसे भी औपनिवेशिक परिपाटी के अनुसरण में जिन अधिनियमों के नाम अंग्रेजी में रखे गए हैं, उनका हिंदी नामकरण संवैधानिक अनिवार्यता है तो ऐसी स्थिति में नये अधिनियमों का भारतीय नाम अत्यंत स्वाभाविक एवं अपरिहार्य लगता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 हेतु गठित कोठारी आयोग की 1966 में दी गई सिफारिशों पर नजर डालें तो उन्होने भारत में भाषाई विविधता को सेतुबद्ध करने एवं भारतीय भाषाओं के मध्य सामंजस्य हेतु त्रिभाषा सूत्र दिया था, जिसकी सशक्त झलक नई शिक्षा नीति 2020 में भी देखने को मिलती है। अभी हाल ही में पंजाब के एक सोशल एक्टिविस्ट ने ऐसे सभी केन्द्रीय कार्यालयों को सूचना के अधिकार अधिनियम 2004 के तहत एक पत्र भिजवाया, जिनके कार्यालयों के नाम द्विभाषी प्रदर्शित नहीं है या फिर द्विभाषी है भी तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में लिखा नाम नीचे है एवं अंग्रेजी उपर। ये दोनों ही स्थितियां भारत सरकार की राजभाषा नीति का समग्र एवं राजभाषा नियम 11 का विशिष्ट उल्लंघन करती हैं।
इस तरह की स्पष्ट संवैधानिक विचारधारा के रहते हुए, आज आजादी के 75 वर्षों के बाद भी एक ऐसे राष्ट्र में जहां 800 से ज्यादा भाषाएं एवं बोलियां अस्तित्व में हैं, 22 को तो संवैधानिक दर्जा प्राप्त है, केंद्रीय अधिनियमों के नाम एक विदेशी भाषा में रखने की वकालत कर औपनिवशिक मानसिकता को पोषित करना कहां तक न्यायोचित है, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
अभिषेक ”प्रकाश”
राजभाषा विशेषज्ञ

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