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समुद्री सैलाब में राष्ट्रभक्ति की ज्योति

नौसेना दिवस पर विशेष

 

यह घटना दिसंबर 2010 की है। उस समय मैं केरल के कोच्चि में भारतीय तटरक्षक के लगभग 30-35 कर्मियों वाले छोटे से जंगी जहाज दुर्गाबाई पर चिकित्सा कार्मिक के रुप में तैनात था। हालांकि केरल में दिसंबर-जनवरी माह में भी उत्तर भारत की तरह घने कोहरे के साथ कड़कड़ाती ठंड नहीं पड़ती है, परंतु फिर भी ठंड थी। रोजाना की तरह उस दिन भी जहाज पर दैनिक रूटीन के अनुसार दिनभर काम चला। अगले तीन-चार दिनों तक जहाज का कोई सेलिंग कार्यक्रम ना होने के कारण सब निश्चिंत थे। सामान्य तौर पर भारतीय तटरक्षक(कोस्टगार्ड) की शिपों पर सुबह 9 से शाम 4 या 5 बजे तक की वर्किंग होती है। उसके बाद जो कार्मिक अपने परिवार के साथ फैमिली क्वार्टर में रहते हैं, वे अपने घर चले जाते हैं और बाकी लोगों का ऑफ ड्यूटी समय भी जहाज में ही कटता है। उन्हें नेवी-कोस्ट गार्ड की भाषा में इन-लिविंग कहा जाता है। हमारे जहाज पर हम केवल 7-8 इनलिविंग थे। हमारे खाने-पीने, रहने, सोने आदि का समुचित प्रबंध जहाज में ही था। हालांकि यह इतना आसान नहीं होता कि जो यान दिन-भर पानी में डोलता रहे, वही आपके आपके रहने-खाने, सोने की जगह हो। परंतु जो आसान हो, वह एक फौजी का जीवन हो भी नहीं सकता। फौज की नौकरी का मतलब ही निरंतर संघर्ष है- दुश्मनों के साथा साथ सर्विस- परिस्थितियों से भी।

बहरहाल हम निश्चिंत थे कि कल का दिन भी आज की तरह सामान्य रहने वाला है। हम सब इनलिविंग उस दिन रात का भोजन कर जहाज में अपने-अपने आवंटित बंक पर गपशप करते सो गए। प्रातः 4:00 बजे के आसपास मुझे एक जोर का झटका लगा और मेरी आंख खुल गयी। मुझे ऐसा लगा कि मेरा बंक (जहाज में सोने की जगह- जैसा भारतीय रेल में बर्थ होता है, कुछ-कुछ वैसा ही) सामान्य दिनों से बहुत ज्यादा हिचकोले खा रहा है। मैं झटके से उठ बैठा। नौसैनिक होने के नाते मुझे यह भांपते जरा भी देर नहीं लगी कि हमारा जहाज जट्टी (बंदरगाह पर जहाज के खड़ी होने की जगह) पर नहीं है। मैं अपने मेस (नौसैनिकों के रहने का स्थान) से बाहर निकला और अपर डेक की तरफ जाने के रास्ते में आगे बढ़ा। यह रास्ता शिप के इंजिन रूम के करीब से गुजरता था। गुजरते हुए मैंने इंजन चलने की आवाज सुनी। अब इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं थी कि हम किसी आकस्मिक सेलिंग पर निकल चुके हैं। पर क्यों? यह प्रश्न बार-बार मेरे दिमाग में घूम रहा था। आखिर ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ पड़ी कि बिना किसी पूर्व सूचना एवं आवश्यक तैयारी के ही हम आधी रात को उस वक्त सेलिंग निकल पड़े जब जहाज के आधे कर्मीदल नींद के आगोश में थे। इन्हीं गुत्थियों में उलझा मैं अपर डेक स्थित ब्रिज में पहुंचा।

हमारे जहाज में चार डेक थे। सबसे नीचे लोअर डेक जिसमें सामान्य तौर पर पेंट स्टोर, राशन स्टोर, जल टंकी, लंगर-हाउस आदि होते हैं। उसके बाद मिडिल डेक, जिसमें सबसे आगे संभारिकी एवं वेतन कार्यालय के छोटे-छोटे कंपार्टमेंट थे। उसके बाद मिडिल डेक पर नौसैनिकों के रहने-खाने की व्यवस्था थी और पीछे की तरफ क्वार्टर डेक के ठीक नीचे इंजन रूम था। मिडिल डेक के ऊपर अपर डेक। अपर डेक पर सबसे आगे के हिस्से को फॉक्सल (फॉरकास्टल) कहते हैं, जिस पर लंबी दूरी तक मार करने वाली बड़ी-बड़ी तोपेे आदि लगी हुई थी। फॉक्सल के अगले भाग में भारतीय कोस्टगार्ड का झंडा फहराना रहता है, जिसे ‘इनसाइनिया’ कहा जाता है। परंपराओं के अनुसार प्रतिदिन सूर्योदय के साथ इस झंडे को फहराया जाता है, इस इवेंट को कलर्स कहा जाता है और सूर्यास्त के साथ एक लंबे स्टील पाइप (सिटी की आवाज) के साथ इस झंडे को उतार लिया जाता है, इस इवेंट को सनसेट कहते हैं। सेलिंग के दौरान यह झंडारोहण फ्लैग-डेक पर लगे फ्लैग-मास्ट से किया जाता है। अपर डेक के पिछले हिस्से को क्वार्टर डेक कहते हैं, जहां जहाज परिचालन हेतु अन्य आवश्यक उपकरण एवं फिटिंग आदि लगे होते हैं। हमारे जहाज पर पिछले हिस्से में भी लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपें एवं इसके अतिरिक्त किसी आपातकालीन स्थिति में यदि शिप को छोड़कर भागना पड़े या फिर जहाज कर्मियों को किसी कारणवश शिप से उतरकर समुंद्र में कहीं और पहुंचना हो तो इसके लिए हवा से फूलने वाली और मशीन से चलने वाली मोटर बोटें जिन्हे रिब अर्थात रिजिड इनफ्लैटेबल बोट कहा जाता है, रखी हुई थीं। अपर डेक के बीचोबीच से फॉक्सल और क्वार्टर डेक को खुला छोड़ते हुए एक डेक, ऊपर की तरफ बना था, जिसे फ्लैग डेक कहते हैं। इस इमारतनुमा फ्लैग डेक के अगले हिस्से में शिप का ड्राइविंग केबिन था, जिसे ब्रिज कहा जाता है। ब्रिज के दोनों ओर बाहर की तरफ खुलते हुए दो ब्रिज विंग, जहां से सेलिंग के दौरान शिप के आस पास की गतिविधियों एवं समुद्र में तैर रहे अन्य यानों आदि पर नजर रखा जाता है।

मैं अपनी ही रौ में सोचता-विचारता अपर डेक से होते हुए ब्रिज तक पहुंचा था। ब्रिज का माहौल बड़ा रहस्यमय और गंभीर था। ब्रिज में उस वक्त वॉच ऑफिसर डिप्टी कमांडेंट अवनीश पाल ड्यूटी पर थे एवं शिप व्हील ( शिप का दिशा नियंत्रक उपकरण) को उत्तम नाविक सुरेश कुमार संचालित कर रहे थे। ब्रिज से सटे संचार कक्ष में संचार नाविक जितेंद्र मौजूद थे। ब्रिज में लगी एकमात्र कुर्सी पर हमारे कमान अधिकारी कमांडेंट डी.के. सिंह चिंतित मुद्रा में विराजमान थे।

पता चला कि कल रात पाइप डाउन (जहाज में रात्रि 10 बजे सोने का संकेत देने के लिए बजने वाली सिटी) के बाद साइलेंट अवधि में मुख्यालय द्वारा एक गुप्त संदेश प्रेषित कर हमारी जहाज को पाकिस्तान से आ रहे एक मर्चेंट शिप की निगरानी का आदेश दिया गया था। इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के अनुसार इस जहाज पर बड़ी मात्रा में हथियार-बारूद आदि होने की आशंका थी, जिसे मौक़ा मिलते ही भारत की सीमा में कहीं उतार देने की योजना थी। इस पाकिस्तानी शिप द्वारा दी गई आधिकारिक सूचना के अनुसार, इसे बांग्लादेश जाना था। हालांकि उनके द्वारा इस पर कच्चा कपास लोड होने की सूचना दी गई थी। परंतु हमारे इंटेलिजेंस की पुख्ता सूचना होने के कारण मुंबई से भारतीय तटरक्षक का एक अन्य जहाज इस पर नजर रखते हुए आ रही थी। वैसे भी भारत में हुए 26/11 हमलों के बाद किसी भी संदिग्ध सामुद्रिक मूवमेंट की अनदेखी करने का जोखिम ना सरकार ले सकती थी और ना ही सुरक्षा एजेंसियां।

मुंबई से इस पाकिस्तानी जहाज की निगरानी में आ रही भारतीय तटरक्षक की जहाज की सेलिंग क्षमता सीमीत होने के कारण उस जहाज को ऑफ कोच्चि (कोच्चि बंदरगाह का निकटवर्ती समुद्री क्षेत्र) रिलीव करके हमें इस पाकिस्तानी शिप की निगरानी करनी थी। यह आदेश इतना अचानक दिया गया था कि हमारे सीओ के पास सुबह तक इंतजार करने का समय नहीं था, इसी कारण आधी रात को ही आनन-फानन में जहाज का लंगर खोल दिया गया।

इस समय सुबह के लगभग 5:00 बज रहे थे। हमारा जहाज कोच्चि बंदरगाह से निकलकर मुंबई से आए हुए इंडियन कोस्टगार्ड के दूसरे जहाज को रिलीव कर चुका था। अब हम पाकिस्तानी शिप की निगरानी करते हुए अपेक्षाकृत शांत सागर की चौड़ी छाती पर मंथर गति से सेलिंग कर रहे थे। हमें अपनी गति भी उस जहाज की गति के अनुरुप ही रखना था। यह पाकिस्तानी शिप हमारी शिप से काफी बड़ी था। इसके अपर डेक पर बड़े-बड़े कंटेनर रखे हुए थे। सामान्यतः किसी एक देश से दूसरे देश जाने वाले पानी के जहाज समंदर में बनाए गए अंतरराष्ट्रीय सीमा का पालन करते हैं और यदि वे किसी देश की समुद्री सीमा में प्रवेश करना चाहते हैं, तो इसके लिए उन्हें उस देश के अनुमति की आवश्यकता होती है। पाकिस्तान के कराची बंदरगाह से चला यह जहाज अरब सागर में सेलिंग करते हुए धीरे-धीरे हिंद महासागर की ओर बढ़ रहा था। वे लोग भारत की सामुद्रिक सीमा के बेहद करीब अंतरराष्ट्रीय जल में चल रहे थे, जबकि हम भारतीय सीमा के साथ चलते हुए उनपर निगरानी रखे हुए थे। दोनों जहाजों के बीच की दूरी लगभग 5-6 नॉटिकल मील की रही होगी।

जब मैं ब्रिज में पहुंचा था, सुबह का उजाला होने लगा था। हम अपने ब्रिज विंग से पाकिस्तानी जहाज को स्पष्ट रूप से देख सकते थे। जहाज के डेक पर कई हथियार बंद लोग चहलकदमी कर रहे थे, जो निश्चित तौर पर जहाज पर लदे माल की रखवाली में लगे थे, जो उनके अनुसार कच्चा कपास था, जबकि हमारे इंटेलिजेंस के अनुसार इसमें हथियार जा रहे थे। उनके द्वारा हथियारों का परिवहन हमारे लिए चिंता का विषय नहीं था, क्योंकि उनका गंतव्य ढाका पोर्ट था। हमारी मुख्य चिंता यह थी कि कहीं ये लोग इन हथियारों को भारत की सीमा में ना उतार दें। इसी कारण हमें इतने आनन – फानन में सेलिंग करनी पड़ी।

दिन जैसे-जैसे चढ़ता गया, वैसे-वैसे पाकिस्तानी जहाज पर सवार कर्मीदलों का मंतव्य स्पष्ट होता गया। वे लोग जहाज पर क्या लेकर जा रहे थे, यह तो पता नहीं चला, परंतु वे यह जरूर भांप गए थे कि भारतीय तटरक्षक द्वारा उनपर नजर रखी जा रही है और शायद यह बात उन्हें नागवार गुजरी। इसी कारण वे लोग अपने मोटरोला सेट से हमारे जहाज की फ्रीक्वेंसी सेट कर लगातार हमारे कमान अधिकारी को उकसाने का प्रयास कर रहे थे। वे सिविलियन थे, कुछ भी बोल सकते थे। बीच बीच में वे गालियां भी बके जा रहे थे। कैसे, पता नहीं- परंतु उनके पास हमारे जहाज से संबंधित सारी जानकारी थी। यहां तक कि वे हमारे कमान अधिकारी का नाम और उनका पैतृक शहर, सब कुछ जानते थे। वे लगातार उन्हे उकसाने का प्रयास कर रहे थे। हालांकि वे हमारी रेंज में थे और हमारी जहाज छोटी ही सही लेकिन इतनी सशक्त जरूर थी कि उचित आदेश मिलने पर हम उन्हें निपटा भी सकते थे। परंतु वे केवल बातों से हमें उकसा रहे थे। किसी तरह का कोई एक्शन उनकी तरफ से नहीं हो रहा था। वे हमारी सीमा में भी नहीं थे। ऐसी स्थिति में हमारे पास उनकी बेसिर पैर की बातों को सुनने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। हमारे जहाज के इंजीनियरिंग ऑफिसर, असिस्टेंट कमांडेंट सरदार जगप्रीत सिंह तो एकाध बार अति उत्साह में सीओ को यह सलाह देने लगे कि – सर आदेश को छोड़िए, उनकी जुबान बंद करते हैं। परंतु अनुभव हमेशा धैर्यशील होता है। हमारे सीओ बेहद अनुभवी अधिकारी थे। वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि केवल उनकी बातों पर जवाबी कार्रवाई करना एक गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कम कम से तब तक को बिल्कुल नही जब तक कि वे सामने से किसी तरह की कोई आतंकी कार्रवाई ना करें या फिर उनका जहाज भारतीय सीमा के अंदर प्रवेश करने या किसी तरह का संपर्क करने का प्रयास ना करे। परंतु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। शायद उनको इस बात का अंदेशा हो गया था कि उनके किसी भी नापाक मंसूबे को हम सफल नहीं होने देंगे। शायद इसी बात की हताशा में, वे लोग बदजुबानी पर उतर आए थे। हमारे लिए अपने ट्रांसमीटर की फ्रीक्वेंसी बदलना भी संभव नहीं था, क्योंकि उच्च आदेश यह था कि हम उनकी बातें सुनते रहे। उन्हे इस बात की जानकारी थी कि उनकी एक-एक बात हमारे द्वारा सुनी जा रही है। वे लोग हमारी इसी मजबूरी का फायदा उठा रहे थे। आदेशानुसार हमें इस जहाज को कोचीन से लेकर कन्याकुमारी तक एस्कॉर्ट करना था एवं ऑफ कन्याकुमारी, केप केमोरिन वाले सामुद्रिक क्षेत्र में, जहां अरब सागर और हिंद महासागर एक दूसरे के गले मिलते हैं, हमें इस पाकिस्तानी जहाज की एस्कॉर्ट ड्यूटी, तूतीकोरिन से आने वाले कोस्टगार्ड के दूसरे जहाज को सौंपकर वापस लौटना था। ऑफ कन्याकुमारी पहुंचते- पहुंचते रात के लगभग 8 बज चुके थे। इस दौरान समंदर अपेक्षाकृत शांत था। परंतु जैसे-जैसे रात चढ़ती गई, चांद खिलता गया, समंदर की लहरें उछल- उछल चांद से मिलने को बेताब होती गई और इस कारण समंदर में उठे ज्वार और भाटे ने पानी में तूफान पैदा करना शुरु कर दिया। किनारे बैठ दूर तक लहराते समंदर को देख हमें भले आनंद आता है, परंतु यही लहरें जब अपने विकराल रुप में आती हैं तो शायद इनसे भयावह कुछ भी नहीं। तूतीकोरिन से आए हुए जहाज को एस्कॉर्टिंग ड्यूटी हैंड ओवर कर जैसे ही हमने वापस कोच्चि का रूख किया, केप केमोरिन के उस विकराल चक्रवाती तूफान में हमारा जहाज फंस गया।

भाग-2

यह मेरे लिए बिल्कुल ही अलग अनुभव था। जहाज की सेलिंग इस कदर खौफनाक हो सकती है, यह मेरी कल्पना से परे था। ज्वार भाटे के उसे भयंकर चक्रवात में फंसा 50 मीटर लंबा हमारा जहाज, 24 जहाज कर्मीदलों के साथ बुरी तरह हिचकोले खा रहा था। सागर की लहरों पर मचलता हुआ पानी का जहाज लहरों के प्रभाव में रोलिंग और पीचिंग – इन दो तरह के मोशन से गुजरता है। जब उफनती हुई सागर की लहरें अपने सीने पर चल रहे जहाज को दाहिने से बाएं और बाएं से दाहिने की तरफ चक्रनुमा गति में धकेलती हैं तो ऐसी स्थिति को रोलिंग कहा जाता है और जब जहाज का अगला हिस्सा लंबवत उपर उठती लहरों की छाती से टकरा लहरों के साथ उनके बराबर की उंचाई पर उपर उठता है और फिर लहरों के धप से नीचे आ जाने पर जहाज और पानी के बीच बने रिक्त स्थान की वजह से तीव्र गति से नीचे पानी की सतह पर गिरता है तो इस स्थिति को पिचिंग कहते हैं। अगर आप कभी किसी बड़े फेरिस व्हील पर चढ़े हों तो जब व्हील तीव्र गति से घूमते हुए अपने सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुंचता है और वहां से घूमते हुए आगे की तरफ गिरना शुरू करता है तो ऐसा लगता है जैसे कलेजा मुंह के रास्ते बाहर आ जाएगा। चक्रवात में फंसे जहाज में पीचिंग के दौरान यही एहसास कम से कम 10 गुना ज्यादा तीव्र एवं हृदय विदारक होता है। चांद को छू लेने को बेताब लहरों के इस खेल में फंसा जहाज एवं उस पर सवार कर्मीदलों से बेहतर शायद ही इस स्थिति को कोई और समझ सके। हम एक ऐसे तूफान में फंस चुके थे जहां जहाज को आगे बढ़ने के लिए रास्ता देने को सागर बिल्कुल तैयार नहीं था। सागर की ज्वालामुखी सी उठती लहरें जहाज की ऊंचाई से भी ऊपर उठ रही थी और अपने पूरे उफान से उठी हुई लहरें, गंतव्य को ना पाने के गम में दुःखी हो हमारे जहाज के फॉक्सल और क्वार्टर डेक पर इस वेग से गिर रही थी जैसे उनका आज का लक्ष्य हमें डुबाना ही हो या फिर चांद को ना छू पाने के दुःख की भरपाई हमें खत्म कर करनी हो। लहरों के इस अतिवादी चक्रव्यूह में फंस, हमें ऐसा लगने लगा था कि आज हमारा जहाज जल समाधि लेकर ही मानेगा। हम 24 में से ज्यादातर जहाज कर्मी उस समय जहाज के ब्रिज केबिन में मौजूद थे। कैप्टन ब्रिज में लगी इकलौती कुर्सी पर बैठे थे। उन्हे छोड़ सब लोग खड़े रहने के प्रयास में थे, परंतु जहाज की रोलिंग- पिचिंग किसी को खड़ा कहां होने दे रही थी। हम ब्रिज में पर खड़े इसके फर्श के साथ अपने दोनों तरफ कभी 75 तो कभी 45 तो कभी – कभी 30 डिग्री का कोण बनाते खुद को संभालने में लगे हुए थे। मैं एक कोने में लोहे की रेलिंग पकड़े अपने को संभालने एवं सी सिकनेस से बचाने के अथक परंतु लगभग असफल प्रयास में निरंतर लगा हुआ था। इन्ही झटकों में एक बार जब जहाज ने रोलिंग और पिचिंग दोनों मोशन एक साथ किया तो अचानक मेरा हाथ रेलिंग से उखड़ गया और मैं ब्रिज के एक कोने से किसी गेंद की तरह लुढ़कता हुआ दूसरे कोने तक जा पहुंचा। उस झटके में कमोबेश यही स्थिति बाकी साथियों की भी रही। हम अब यह मान चुके थे कि शायद हम सब कल का सूरज नहीं देख पाएंगे। सागर की उफनती लहरें शिप के फॉक्सल और क्वार्टरडेक को इस तरह अपने आगोश में ले चुकी थी कि ब्रिज में खड़े होकर हम ना शिप का अगला भाग देख पा रहे थे और ना ही पिछला।

परंतु इन विकट परिस्थितियों में भी एक व्यक्ति थे, जिन्होने सब में एक आशा की लौ जला रखी थी। वह थे हमारे कैप्टन कमांडेंट डीके सिंह। वे पहले भी इस तरह की सेलिंग कर चुके थे। अतएव इस बात को लेकर वे आश्वस्त लग रहे थे कि केप केमोरिन के इस समुद्री क्षेत्र को हम तीन से चार घंटे में पार कर लेंगे और उसके बाद समंदर शांत होने लग जाएगा। 3 से 4 घंटे ! हमें सुनने में यह 3 – 4 वर्ष सा प्रतीत हो रहा था। ब्रिज में खड़े, जिंदगी और मौत की जंग लड़ते हुए मैं समंदर के रौद्रतम रूप को देख रहे थे,जिसके सौंदर्य को किनारे से खड़े निहारते मेरी आंखें नहीं थकती थीं। बाहर से इतना शांत एवं आकर्षक दिखने वाला – वक्त आने पर इतना रौद्र एवं क्रूर भी हो सकता है, इस वास्तविकता को मैनें आज अत्यंत करीब से महसूस किया। तभी अचानक निचले डेक से बहुत जोर की आवाज आई। ऐसा लगा जैसे कुछ टकराकर टूटा हो। हम सब की सांस हलक में अटक गयी । उपर से दुश्वारी ये कि कहां क्या हुआ ये देखने कौन जाए? स्थिति यह थी कि किसी का अपनी जगह से हिलना भी संभव नहीं था, परंतु हमारे साथी गजेंद्र सिंह जो कि मेरठ के रहने वाले थे और जहाज में चीफ कुक थे, उन्होंने इस विकट परिस्थिति में भी अदम्य साहस दिखाया और धीरे-धीरे शिप के लोहे की घुमावदार सीढ़ियों से होते हुए निचले डेक की तरफ बढ़े। यह पता करना बेहद जरुरी था कि आवाज कहां से आई। पानी के जहाज में बिजली की सप्लाई के लिए बड़े-बड़े जनरेटर लगे होते हैं। जब जहाज जट्टी पर होता हैं, तब तो बिजली की सप्लाई बंदरगाह से आ जाती है, परंतु जैसे ही जहाज जट्टी छोड़कर समंदर में आता है, इसमें बिजली की सप्लाई जनरेटर से शुरू हो जाती है। लोहे के बने जहाज में फिट सारे उपकरण बिजली से ही चालित होते हैंऔर ऐसी स्थिति में अगर कहीं शॉर्ट सर्किट हो जाए तो गंभीर मुसीबत उत्पन्न हो जाती है। हम सबों की जान अटकी हुई थी कि गजेंद्र नीचे से ऊपर आए और बताया कि किचन में मजबूत रस्सियों से बांधकर रखी हुई बड़ी हांडी शिप की इस असामान्य गति के कारण वह फिसल कर जोर से फर्श पर गिर गई जिसके कारण यह आवाज आई थी। यह जानकर सब के सांस में सांस आई।

पानी के जहाज में सेलिंग के दौरान एक और समस्या आम होती है। जब जहाज रोलिंग और पिचिंग से गुजरते हैं तो कर्मियों को मोशन सिकनेस बहुत ज्यादा होती है जिसे सी-सीकनेस कहते हैं । ऐसी स्थिति में लगातार उल्टियां शुरू हो जाती है। जहाज पर वे लोग जिन्हें सेलिंग के दौरान उल्टियां नहीं होती अर्थात सी-सिकनेस नहीं होता, उन्हे हम आपसी बातचीत में सी-टाइगर कह देते थे। आज केप केमोरिन के इस चक्रवात में सारे सी टाइगर्स की हालत खराब थी। सभी को लगातार होती उल्टियाों से डिहाइड्रेशन हो रहा था और मैं, जिस पर जहाज में मौजूद सभी कर्मी दलों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी थी, 15वीं बार उल्टी कर खुद ही सी-सिकनेस का भयंकर शिकार हुआ पड़ा था। हालांकि इससे बचने की दवाई और चिकित्सीय उपचार नीचे सिक-बे (जहाज का मिनी अस्पताल) में थे, परंतु चुनौती ये कि वहां तक जाए कौन ? मैं असहाय सा पड़ा अपनी अधखुली आंखों से सभी साथियों को अपनी तरफ निरीह ताकते हुए देख रहा था। अंततः मुझसे रहा नहीं गया और मैं धीरे-धीरे लगभग घिसटते हुए शिप की घुमावदार सीढ़ियों पर बैठ-बैठकर नीचे मिडिल डेक स्थित सिक बे तक पहुंचा। जो दूरी मैं अक्सर 2-3 मिनट में तय कर लेता था, उसे तय करने में मुझे आज तकरीबन आधे घंटे लगे । वहां से मैं सी-सिकनेस की दवाई, ओआरएस का पैकेट एवं ग्लूकोज आदि लेकर ब्रिज में पहुंचा। हमारे शिप के असली सी-टाइगर गजेंद्र पानी की बोतल साथ लेकर पहुंचे। सी-सीकनेस से प्रभावित साथियों को ग्लूकोज एवं ओआरएस देने पर उनके चेहरे पर थोड़ी चमक लौटी। एक मेडिकल प्रोफेशनल होने के नाते आज विपरीत परिस्थितियों में अपनी जिम्मेदारी का इस कदर निर्वहन कर मुझे अभूतपूर्व आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ।

बाहर चक्रवाती सैलाब अपने पूर्ण उफान पर था। समुद्री आतंक के इस रात हमें तूफान में फंसे लगभग 6 घंटे हो चुके थे। सुबह के लगभग 3:00 बजे होंगे, जब हमारे कप्तान ने हमसे कहा कि अब अगले 15 से 20 मिनट में हमारा जहाज तूफान की जद से बाहर हो जाएगा। यह सुन मैं चैन की सांस ले ही पाता तभी ब्रिज व्हील पर खड़े प्रधान नाविक रामन्ना एक जोर का झटका खाकर फर्श पर गिरे और बेहोश हो गए। यह हम सबके लिए अत्यंत मुश्किल घड़ी थी। उन्हें वहां से रेस्क्यू कर जहाज के छोटे से अस्पताल जिसे सीक बे कहा जाता है, तक ले जाना अत्यंत चुनौती भरा एवं दुष्कर कार्य था। परंतु कर्तव्य के आगे चुनौतियों की बिसात कम से कम फौजियों के लिए तो नहीं ही होती है। मैनेंं और गजेंद्र ने इस विकट परिस्थिति में यह लगभग असंभव सा लगने वाला कार्य भी किया। जहाज पर रखे लचीले बांधे जा सकने वाले नील रॉबर्टसन स्ट्रेचर में बांधकर हम उन्हे जैसे-तैसे नीचे सिक बे ले आए। पानी की सतह से लगभग 30 डिग्री का कोण बनाते जहाज में बड़ी मुश्किल से मैंने उसे ओआऱएस, ग्लूकोज एवं अन्य आवश्यक फर्स्ट एड दिया। जब उसकी स्थिति थोड़ी सामान्य हुई तब मैं पुनः उपर ब्रिज में आया। ब्रिज की स्थिति अब भी कमोबेश वैसी ही थी। परंतु लहरों का उठाव अब धीरे धीरे कम हो चला था। सुबह के चार बजने को थे, जब हमारे कैप्टन ने कहा कि अब हम केप केमोरिन के उस भयावह बवंडर से दूर हो चले हैं। लगभग आधे घंटे के बाद हमें अपेक्षाकृत शांत समंदर मिलने लगा। जहाज शनैः शनैः अपनी सामान्य स्थिति में लौटने लगा। ब्रिज में उपस्थित सब के जान में जान आई। वास्तव में उस दिन ऐसा लगा जैसे हमें एक नया जीवन प्राप्त हुआ हो। परंतु केप केमोरिन के उस खौफनाक सामुद्रिक बवंडर में काटी गई वह रात स्मृति पर ऐसे छप गई कि आज भी जब वह घटना याद आती है तो शरीर में एक रोमांचक सिहरन सी दौड़ जाती है।
(सभी पात्रों का नाम काल्पनिक है, हलांकि यह घटना वास्तविक है।)
-अभिषेक ‘’प्रकाश”
पूर्व नौसैनिक

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