जीवन परिचय

सिविल सेवा में जाने के पिता के सपने की जगह अभिनय ने ले ली, जाने हबीब तनवीर की कहानी

8 जून: रायपुर में 1 सितंबर, 1923 को जन्मे हबीब तनवीर ने पहली बार 11-12 साल की उम्र में लॉरी स्कूल में शेक्सपीयर के ‘किंग जॉन’ में राजकुमार आर्थर का अभिनय किया था.

पिता चाहते थे कि हबीब सिविल सेवा में जाएं. 1940 में पिता ने इस उम्मीद से नागपुर के मॉरिस कॉलेज में हबीब तनवीर का नाम लिखवाया. वहां से एमए की पढ़ाई के लिए हबीब अलीगढ़ चले गये.

सिविल सेवा में जाने के पिता के सपने की जगह अभिनय ने ले ली थी और हबीब अपनी एमए की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर, अपनी तस्वीरों के साथ मुंबई जा पहुंचे. वहां पहले रेडियो में, फिर फ़िल्म इंडिया में और फिर फ़िल्मों के लिए उन्होंने काम करना शुरू कर दिया. इसी दौरान इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से भी हबीब तनवीर जुड़ चुके थे.

मुंबई में ही हबीब तनवीर ने अपना लिखा पहला नुक्कड़ नाटक ‘शांतिदूत कामगार’ का प्रदर्शन किया. उन्होंने इस दौर में कुछ पत्र-पत्रिकाओं का भी संपादन किया.

लेकिन मुंबई बहुत लंबे समय तक रास नहीं आई और हबीब तनवीर 1953 में दिल्ली पहुंचे. यहां उन्होंने एलिज़ाबेथ गौबा के मोंटेसरी स्कूल में नाटक पढ़ाने का काम शुरू किया.

जहां 1954 में उन्होंने नज़ीर अकबराबादी के लिखे को आधार बना कर ‘आगरा बाज़ार’ नाटक लिखा. 14 मार्च, 1954 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कला विभाग में पहली बार इस नाटक का मंचन किया गया. हबीब ने इसके बाद प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘शतरंज के मोहरे’ नाटक का निर्देशन किया.

हबीब तनवीर के साथ लगभग दो दशक तक काम करने वाले रंगकर्मी अनूप रंजन पांडेय को हबीब तनवीर का पूरा सफ़र जैसे ज़ुबानी याद है- “1954 में हबीब तनवीर लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामाटिक आर्ट्स में अभिनय सीखने चले गये. बाद में उन्होंने ब्रिस्टल के ओल्ड विक थिएटर स्कूल में निर्देशन सीखा. लगभग आठ महीनों तक उन्होंने ब्रेख़्त के बर्लिनेर एंसेंबल के नाटक देखे. भारत लौटने के बाद, उन्होंने बेगम कुदैसिया ज़ैदी के हिन्दुस्तान थियेटर के साथ मिलकर काम करना शुरू किया.”

अनूप रंजन पांडेय बताते हैं कि बेगम कुदैसिया ज़ैदी के साथ शूद्रक के मृच्छकटिकम नाटक के हिंदी अनुवाद ‘मिट्टी की गाड़ी’ पर काम चल ही रहा था कि 1958 की गर्मियों में हबीब तनवीर अपने घर रायपुर लौटे.

छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी

हबीब तनवीर ने 1973 के जिस साल का ज़िक्र किया, असल में यह वही दौर था, जब हबीब तनवीर ने रायपुर में महीने भर का नाचा वर्कशॉप किया.

हबीब तनवीर के नाटक ‘चरणदास चोर’ में चोर की भूमिका निभाने वाले अमर सिंह लहरे बताते हैं कि कैसे उस वर्कशॉप में, उनकी नाचा कंपनी के साथ-साथ चार अलग-अलग नाचा मंडलियों के कलाकार शामिल हुए और हबीब तनवीर का ‘नया थियेटर’ पूरी तरह से छत्तीसगढ़िया थियेटर में बदल गया.

इस थियेटर में छत्तीसगढ़ का नाचा था, गम्मत था, पंथी नृत्य था, राउत नाच, पंडवानी थी और इस तरह पूरे छत्तीसगढ़ का लोक था. इसी वर्कशॉप में ‘मोर नाव दामाद, गांव के नाम ससुराल’ नाटक तैयार हुआ.

अमर सिंह लहरे ने एक आयोजन में बताया- “हबीब साहब केवल इतना भर करते थे कि वो किसी अभिनय या दृश्य को क्रमश: इंप्रोवाइज़ करते जाते थे. मैंने बरसों उनके साथ काम किया. उनका जादू था इंप्रोवाइज़ेशन. 1973 के महीने भर तक चले वर्कशॉप के बाद तैयार हुआ नाटक- मोर नाव दामाद, गांव के नाम ससुराल.”

अमर सिंह लहरे कहते हैं कि हबीब साहब ने नाचा के कलाकारों के स्वाभाविक अभिनय को बरकरार रहने दिया, बीच-बीच में सुविधानुसार संवाद में हेर-फेर की भी छूट दी, लेकिन उसमें लगातार बेहतरी की जगह वे तलाशते रहते थे.

एक नाटक का उल्लेख करते हुए अमर सिंह लहरे बताते हैं कि उन्हें उस नाटक के दृश्य में रंजीत कपूर से उनका सामान छीनना था. इस क्रम में गुंडा बने अमर सिंह लहरे का पैर फिसला और वे गिर पड़े. लेकिन बिना एक पल गंवाए गुलाटी खाते हुए वे परदे के पीछे ओझल हो गए. दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट ने बता दिया कि उनकी ग़लती छुप गई थी.

अगले दिन फिर नाटक का शो था और इस दृश्य को बिना किसी विघ्न के पूरा कर अमर सिंह परदे के पीछे पहुंचे तो हबीब तनवीर नाराज़ हो गये. उन्होंने पूछा- आज गुलाटी क्यों नहीं खाई? अमर सिंह को समझ में आ गया कि अब इस नाटक के उस दृश्य में गुलाटी को भी शामिल करना होगा.

आगरा बाज़ार, शतरंज के मोहरे, लाला शोहरत राय, मिट्टी की गाड़ी, मोर नाव दामाद गांव के नाम ससुराल जैसे नाटकों के बीच ही हबीब तनवीर ने अपनी छत्तीसगढ़ी मंडली के साथ ही ‘चरणदास चोर’ नाटक तैयार किया, जिसने नाटकों की एक नई परिभाषा गढ़ी. 1982 में एडिनबरा ड्रामा फेस्टिवल में ‘चरणदास चोर’ के लिए जब हबीब तनवीर को एडिनबरा फ्रिंज अवार्ड मिला तो पूरी दुनिया का ध्यान हबीब तनवीर की ओर गया.

कवि और साहित्य-कला के समालोचक अशोक बाजपेयी ‘चरणदास चोर’ को लेकर अक्सर ये बात रेखांकित करते हैं कि एडिनबरा में पुरस्कार उस आधुनिकता को नहीं मिला था, जो इब्राहिम अलकाज़ी ने विकसित की थी. ये पुरस्कार उस संयमित आधुनिकता को भी नहीं मिला था जो शंभु मित्र ने विकसित की थी. ये पुरस्कार उस कच्ची ऊबड़-खाबड़ बीहड़ आधुनिकता को मिला था, जो हबीब तनवीर ने किसी हद तक खोजी थी, किसी हद तक विन्यस्त की थी और किसी हद तक विकसित की थी.

अलग राज्य बनने के बाद हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के साथ, ज्यादातर समय भोपाल में बने रहे. बीमारी के बाद 2009 में हबीब तनवीर का निधन हो गया. आज उनकी 14 वीं पुण्यतिथि है.

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